रामायण के कलाकार – श्री राम (Shri Ram)

रमंति इति रामः। जय श्री राम। आज अयोध्या के नए भव्य मंदिर में राम लल्ला की प्राण प्रतिष्ठा होगी। इस शुभ अवसर पर आप सब को बहुत बहुत बधाई। मेरे इष्ट, मेरे प्रभु श्री राम आज लौट रहे हैं, यह आनंद शब्दों के परे है। इस आनंद में मुझे उस कलाकार का सदा स्मरण रहता है जिनके अभिनय ने एक ८ साल की बच्ची के हृदय में श्री राम के प्रति प्रेम को जगाया। वह आज अयोध्या में उपस्थित हैं, उन्हें वहां निमंत्रण दे कर बुलाया गया है, यह बड़े हर्ष की बात है।

प्रभु श्री राम का नाम लेते ही जो छवि उभरती है वह है – श्री अरुण गोविल जी की। रामायण के पहले प्रसारण को ३७ वर्ष हो गए, पर आज भी यह छवि उतनी ही साफ और निर्मल है जैसी यह पहली बार, बाल अवस्था में मेरे हृदय में अंकित हुई। इस जीवन के संघर्षों का सामना करने की शक्ति श्री राम से ही मिली है। इसलिए रामानंद सागर जी, उनकी बनाई रामायण और अरुण जी से मुझे क्या मिला यह शब्दों में व्यक्त करना शायद संभव न हो, परंतु यह अवश्य कह सकती हूं कि सही मायनों में श्री राम को मेरे जीवन में लाने का श्रेय उन्हें ही प्राप्त है।

अरुण जी को मैंने पहली बार विक्रम बेताल में देखा था। उस समय हमारे पास दूरदर्शन नहीं था, एक पड़ोसी के घर शनिवार ४ बजे जाकर मैं यह कार्यक्रम देखती थी। उस दौरान बेताल बनाकर मेरी छोटी बहन को मैंने कई बार पीठ पर घुमाया है। मेरे पिताजी को मेरा यूं दूसरों के घर जाकर दूरदर्शन देखना पसंद नहीं था, लेकिन उन्होंने मुझे इस धारावाहिक को देखने से रोका भी नहीं। १९८७ में हमारा पहला टीवी घर आया। हर रविवार सुबह ९ बजे, रामायण मैंने अपने घर पर देखी। हर भाग के साथ ज्यों ज्यों राम कथा बढ़ती रही, प्रभु का चरित्र मन में घर करता चला गया।

रामायण के बाद, फुलवंती, मशाल आदि धारावाहिकों में अरुण जी को विभिन्न भूमिकाओं में देखा। परंतु विश्वामित्र में उनका राजा हरिश्चंद्र का अभिनय इन में मेरा सबसे पसंदीदा अभिनय है। उनकी फिल्मों में ’सावन को आने दो’ मेरी सबसे पसंदीदा फिल्म है। रामायण के अतिरिक्त सभी भूमिकाओं में ज़ाहिर है वह मुस्कुराते हैं, पर किसी में भी श्री राम नहीं लगे। मुझे बड़ा आश्चर्य होता था, कि ऐसा क्यों। कुछ अदभुत, विलक्षण प्रभाव था उस हल्की सी मन मोहक मुस्कान में जो अरुण जी को एक आम व्यक्ति से भगवान बना देती थी। मुझे हमेशा उत्सुकता रही कि उन्होंने यह कैसे किया होगा।

अरुण जी में स्वाभाविक रूप से एक राजवंशी आभा है, और इस चरित्र को निभाने के लिए वह आवश्यक थी। आखिरकार श्री राम एक सुप्रसिद्ध सूर्यवंश के राजकुमार थे, फिर राजा बने। उनके पुर्वजों में पृथु, सगर, इक्ष्वाकु, शिबी, भागीरथ, हरिश्चंद्र, रघु, आदि महापुरुष शामिल हैं। इसके अतिरिक्त वह कोई भी कार्य आवेश में नहीं करते, क्रोध में भी नहीं। उन्हें स्थितप्रज्ञ कहा गया है। उनका चरित्र निभाने वाले कलाकार को यह गुण अपने हाव-भाव, बोल-चाल, आदि से बिना ज़ाहिर किए दर्शाना आवश्यक था। अरुण जी को अपने चलने की, बोलने की, प्रतिक्रिया देने की गति में परिवर्तन करना पड़ा। इसके अलावा राजसी वेशभूषा, कपड़े, मुकुट, कुंडल आदि पहनकर सहज रूप से घूमना भी आसान नहीं था। मैंने पढ़ा है कि ३ महीनों तक अरुण जी ने अपने घर में उस राजसी वेशभूषा को धारण कर घर के सारे काम किए, ताकि अभिनय में इस कारण कोई असहजता न झलके।

इस तैयारी के दौरान रामानंद सागर जी से उन्हें बार-बार कुछ ऐसी प्रतिक्रिया मिलती कि, ’मनुष्य ही लग रहे हो, भगवान नहीं’। अरुण जी सोच में पड़ गए कि प्रभु की दिव्यता अपने हाव-भाव में कैसे व्यक्त करें। उन्होंने श्री राम के विभिन्न चित्रों को एकत्र करना शुरू किया, जितने भी, जहां से भी मिल सकते थे – मंदिरों में, किताबों में, संग्रहालयों में, यहां तक कि अपने मित्रों के घरों के मंदिरों में भी। सभी चित्रों का अध्ययन करने से उन्हें प्रतीति हुई कि हर चित्र में श्री राम के चेहरे का भाव कुछ ऐसा था जो केवल भगवान का ही हो सकता है। एक सुंदर, शांत, किसी भी भाव से रिक्त अभिव्यक्ति जिसमें मुस्कान की बस झलक मात्र हो। श्री राम के मुखारविंद का बखान करने योग्य शब्द हमारे शब्दकोष में नहीं हैं, आशा है हमारी भावना हमारे पाठकों तक पहुंच रही है।

सुना है २० दिन तक अरुण जी दर्पण के सम्मुख उसी दिव्य अभिव्यक्ति को अपने चेहरे में खोजते रहे। यदि वह उस भाव को धारण कर पाएं तो वह श्री राम के सम्पूर्ण सार को अपने व्यक्तित्व में समाहित कर सकते थे। आखिरकार उनकी मेहनत रंग लाई जब उनके मुँह के किनारे अंश भर उठे और उन्हें वही दिव्य अभिव्यक्ति अपने मुख पर नज़र आई। अब वह श्री राम का रूप धारण करने के लिए पूरी तरह तैयार थे। उनकी वह मुस्कान श्री राम की पहचान बन गई जिसका जादू आज भी बरकरार है।

वर्ष २०११ की बात है, मेरे मन में एक शंका जागी। जब भी श्री राम का नाम लेती, पूजा में, ध्यान में, हर बार अरूण जी का चेहरा नज़र आता। मैं दुविधा में पड़ गई, क्या यह सही है, क्या मैं एक अभिनेता को पूज रही हूं, वह कितने भी अच्छे इंसान हों, पर श्री राम तो नहीं हैं। मैंने मां से पूछा और उन्होंने कहा कि भावना ही प्रधान है, यदि इस छवि में श्री राम ही दिख रहे हैं, तो स्मरण श्री राम का ही हो रहा है, अभिनेता का नहीं। पर जब मन में शंका हो तो इतना सीधा-साधा स्पष्टीकरण पर्याप्त नहीं होता।

कुछ दिन बाद मैंने पहली बार ’भरत मिलाप (१९४२)’ के गीत, “प्रभु जी पहले पाँव पखारूँ, प्रभु फिर गंगा पार उतारूँ” में प्रेम अदीब जी को देखा। न जाने क्यों उनके बारे में जानने कि मुझे उत्सुकता हुई। उनके बारे में पढ़ते समय मुझे पता चला कि जब उनकी फिल्म ’राम राज्य (१९४३)’ लोकप्रियता के चरम पर थी, उदयपुर के निकट किसी गांव में एक राम मंदिर बन रहा था। जब इस बात पर चर्चा हुई कि मंदिर में श्री राम की मूर्ति कैसी हो, निर्णय लिया गया कि ‘राम राज्य’ में जो राम हैं, उनके जैसी दिखने वाली मूर्ति बनाई जाए। यह गांव कहां है, यह मंदिर कौनसा है, इसकी जानकारी कभी नहीं मिली लेकिन इस बात ने मेरी दुविधा मिटा दी।

वह मंदिर जहां भी हो, वहां श्रद्धालु आज भी उस मूर्ति के आगे माथा टेकते होंगे। उनमें से कितनों को यह ज्ञान होगा कि इस मूर्ति की प्रेरणा कौन हैं, उन्हें तो श्री राम ही दिख रहे हैं। प्रभु का हर चित्र, हर मूर्ति जो किसी कलाकार ने बनाई है, उसकी प्रेरणा का स्रोत कोई न कोई तो रहा होगा। आम तौर पर वह कौन हैं, हमें इसका ज्ञान नहीं होता, तो हमें प्रभु ही दिखते हैं। तो क्या ज्ञान होने पर उसकी महिमा कम हो जाती है? शायद नहीं, इसलिए अब मां का कथन ही सही लगता है कि भावना प्रधान होती है। श्री राम को तो शायद आज किसी ने नहीं देखा, लेकिन अरुण जी के राम रूप में वह कैसे दिखते होंगे यह अनुमान लगाने का आनंद तो अवश्य मिला है।

यदि इस जीवन में मुझे उनसे मिलने का अवसर मिला तो उन्हें सविनय प्रणाम करूंगी, इसलिए नहीं वह एक आम इंसान या एक अभिनेता से अधिक हैं पर इसलिए कि उनके राम स्वरूप में मेरे प्रभु वास करते हैं। जब उन्हें सनातन धर्म के इस सबसे प्रसिद्ध व्यक्तित्व को चरितार्थ करने का अवसर मिला होगा, तब उनकी क्या प्रतिक्रिया रही होगी? अभिनेता के तौर पर अपने भविष्य को लेकर आशंका अवश्य हुई होगी। परंतु वह सब पीछे छोड़, उन्होंने इस चुनौती को स्वीकार किया और अपनी कला का सर्वस्व दिया। उनके उस निर्णय के लिए मैं उनका हृदय से धन्यवाद करूंगी। इससे अधिक यदि कुछ कह सकी, तो उनसे एक प्रश्न अवश्य पूछना चाहूंगी – “श्री राम का नाम सुनते ही मुझे आप नज़र आते हैं, जब आप श्री राम का नाम लेते हैं, तो आप को क्या नज़र आता है?”

इस लेख के अंत में मैं उन सभी लोगों का, उन कारसेवकों का, हमारे उन पूर्वजों का स्मरण कर उन्हें प्रणाम करना चाहती हूं जिनके अथक प्रयास, त्याग और वर्षों के बलिदान के कारण आज का शुभ दिन हमारे भाग्य में आया है। आप सबको मेरा शत शत कोटि प्रणाम और आभार। जय श्री राम।।

– मैत्री मंथन

* इस लेख में दी गई जानकारी, इतने वर्षों में अरुण जी द्वारा दिए गए अनेक साक्षात्कारों पर आधारित है| मैंने अपने शब्दों में उन्हें संक्षेप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

* रामानद सागर जी की रामायण पर हमारी इस शृंखला में हमारा प्रथम प्रयास है सभी कलाकारों को उनके नाम और चेहरे से पहचानना। कभी हम अपने भाव, कभी कोई जानकारी, कोई किस्सा सांझा करेंगे और कभी केवल नाम। इसलिए इस शृंखला में कदाचित लेख कम और चित्र अधिक हों। धन्यवाद।

* The information provided in this blog is to the best of our knowledge, if any discrepancies are found please let us know. Thank you.

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